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Thursday, May 15, 2008

हिन्दू राष्ट्र की मानसिकता......

ताज महल, प्रेम का अद्भुत स्तंभसारी दुनिया यही जानती और मानती है,लेकिन यह केवल प्यार का स्तंभ नहीं है,यह गवाह है असुरक्छा का,यह गवाह है एक मुसलमान के प्रेम का,जिसने भारत में प्रेम किया,यहाँ प्रेम वर्जना की वस्तु है,शायद इसीलिए शाहजहाँ ने,अपने प्रेम को दीर्घकालिक बनाने के लिए ताज का निर्माण कराया,अजीब बात है मैं यह सब क्यों कह रहा हू,जबकि सारी दुनिया जानती है.लेकिन दुर्भाग्य इस प्रेम के प्रतीक का,कोई प्रेमी नहीं खाता कसम ताज कीक्यों खाते है प्रेमी कसमे लैला और मजनू कीहीर और रांझा की ?यह महज विडम्बना नहीं है,यह है एक राष्ट्र की मानसिकता,हिन्दू राष्ट्र की मानसिकता,पुरुष प्रधानता की मानसिकता,अकबर महान ने प्रेम किया जोधा बाई से,लेकिन नहीं बनवाया कोई ताज महल,शुरू किया दीने इलाही,जहाँ पर लोग स्वतंत्र हो अपनी स्वतंत्रता व पसंद के साथ,क्यों रह गयी यह कहानी अधूरी?क्यों आज भी प्रेम वर्जना की वस्तु है,एक सेकुलर स्टेट में?

महफूज नही है महिलाएं दिल्ली में


हमारे पुराणों धार्मिक ग्रंथो मी यू तो महिलाओ की स्थिति देवी के समान दर्शया गया है , लेकिन हमेशा से ही उनको अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता रहा है , चाहे वो सीता के रूप मे हो या फ़िर आज की गुडिया ...
दिल्ली मे महिलाओ की स्थिति की चर्चा करे तो राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली जैसे आधुनिक शहर मे महिलाओ के खिलाप अपराध मे सबसे ज्यादा बढोत्तरी हुई है । कभी तंत्र - मंत्र के नाम पर की हत्या कर दी जाती है तो कही पड़ोसी द्वारा बलात्कार यह पीडा किसी भी रूप मे हो सकती है ।
दिल्ली मे अभी हाल ही मे एक सर्वे के अनुसार बलात्कार के ५३३ मामले और छेड़ छाड़ के ६२९ मामले दर्ज किए गए है । यह आकडे एनी बड़े शहरो की तुलना मे काफी अधिक है । ऐसे मामलो मे निरंतर ब्रिधि का सबसे बड़ा कारण है दोषी के ऊपर न्यायालय द्वारा दोष सिद्ध न होना ।
यू तो हर तरह के अपराध से निपटने के लिय कानून है पर यह सब अपराध के आगे फिसड्डी नजर आते है , राष्ट्रीय महिला आयोग की माने तो बलात्कार छेड़ छाड़ एवं अगवा जैसे मामलो मे आरोप सिद्ध न होना एक चिंता का विषय है । देश भर मे २००६-०७ मे ३७ हजार मामले सामने आए है जिनमे दोष सिद्धि का प्रतिशत ३० से भी कम था , और एक बात बलात्कार के मामले मे तो यह आकडा २७ % से अधिक नही बढ़ पाया ।
समाज मे बलात्कार पिडिता एक दर्द लिए हर दिन मरती रहती है , ऐसे मे इन पिदितो के लिए कुछ प्रावधान होने चाहिए ताकि वे समाज की मुख्यधारा से जुड़ सके । ज्यादातर मामलो मे पिडिता बदनामी के डर से पुलिस मे मामला दर्ज ही नही कराती है ।

इतिहास के दोराहे पर नेपाल.........

नेपाल की समस्या अभी तक सुलझ नहीं सकी है और शांति के राह में बाधाएं खत्म नहीं हुई है। माओवादियों द्वारा युद्ध विराम की घोषणा और चुनाव में भाग लेने का फैसला ही सिर्फ शांति का गारंटीकार्ड नहीं है। आज नेपाल, इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां से एक तरफ स्थिरता और विकास के तमाम रास्ते खुलते हैं तो दूसरी तरफ बर्बादी का अथाह समंदर है। दरअसल नेपाल, भारत और चीन की क्षेत्रीय महात्वाकांक्षाओँ का शिकार हो गया है। लेकिन ये इसकी असली बीमारी नहीं है। नेपाल जैसे देशों की कोई भी समस्या भारत से ही शुरु होती है और भारत में ही जाकर खत्म भी होती है।नेपाल के इतिहास की थोड़ी सी पड़ताल करें तो असली समस्या तब शुरु हुई जब भारत की आजादी के कुछ ही समय बाद नेपाल में वर्तमान शाह राजवंश को भारत सरकार की मदद से पुनर्स्थापित किया गया-इससे पहले लगभग सौ सालों तक वास्तविक सत्ता राणा परिवार ने हथिया रखी थी। 1844 में महल हत्याकांड के बाद राणा जंगबहादुर ने सत्ता अपने हाथों में ले ली थीं और सन सत्तावन के भारतीय विद्रोह के समय अंग्रेजों के सबसे काबिल चमचों में उसका नाम सिंधिया और सिख रजवारों के साथ आता है। लेकिन भारत की आजादी के बाद भारत ने अपने देश में तो लोकतंत्र को बढ़ावा दिया, लेकिन नेपाल की ओर से आंखे मूंद ली। नेपाल में निरंकुश राजतंत्र को फलने-फूलने का भरपूर मौका दिया गया-एक ऐसे देश द्वारा जो खुद को लोकतंत्र का अगुआ मानता था। गौर कीजिए- भारत ने दक्षिण अफ्रिका और म्यांमार को लंवे अर्से तक इसी बिना पर वहिष्कृत किए रखा, लेकिन पड़ोस की घटनाएं भारत के लिए क्षम्य बन गई। और इस शुतुरमुर्गी रबैये का खमियाजा भारत को भुगतना ही था। दरअसल भारत ने अपनी विग व्रदर बाली भूमिका का निर्वाह करते हुए नेपाल की छोटी-मोटी जरुरतों का तो ख्याल रखा, लेकिन अपनी सुरक्षा के नाम पर कई एकतरफा संधि भी किए जिसका नेपाल की जनता के एक छोटे से लेकिन प्रभावशाली तबके ने सदा विरोध किया। नेपाल में एक परजीवी एलीट का विकास होता रहा जिसकी फैंटेसी भारत के बड़े शहरों में बसने की होती थी और जिनके बच्चे आईआईटी में पढ़ने का ख्वाब देखते थे। और राजा इस तबके का नेता हुआ करता था। जनता को इस दर्जे तक अशिक्षित और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से दूर रखा गया था कि राजा ही बिष्णु अबतार था शायद बिष्णु का ग्यारहवां अबतार। भारत का सत्ताधारी वर्ग सोंचता था कि एक कमजोर नेपाल और उसका कमजोर नेतृत्व बड़ी आसानी से काबू में रह सकता है। किसी लोकतांत्रिक नेता से बात करने की तुलना में तानाशाह या राजा टाइप के नेता से बात मनबाना बड़ी ताकतों के लिए हमेशा से आसान रहा है। लेकिन एक ऐसे देश में, जो दुरुह घाटियों से भरा पड़ा हो और जिसके दोनों तरफ दो विशाल विकासशील और गतिशील देश हों, यह लगभग असंभव ही है कि ज्यादा दिन तक उस देश में युग-सत्य न पहुंचे। कायदे से भारत को पचास के दशक से ही नेपाल में एक स्वस्थ और गतिशील लोकतंत्र के प्रयास करना चाहिए था और ऐसा न करके भारत ने राजनीति की लगभग सारी जमीन ही किसी बैकल्पिक ताकत के खाली छोड़ दी और माओवादियों ने इसे सिर्फ दस सालों में भर दिया। लेकिन सवाल सिर्फ राजशाही के खात्मे और बैकल्पिक शासन व्यवस्था की नहीं है- नेपाल में कई अन्य विवाद भी हैं। नेपाल की आवादी में भारत से गये लोगों या भारतवंशियों की संख्या उसकी कुल आवादी का लगभग 48 प्रतिशत है औप पहाड़ी लोगों की जनसंख्यया 52 फीसदी है। जबकि प्रशासन में मधेशी 10 फीसदी भी नहीं है। नेपाल का राज परिवार मधेशी मूल का है और अपनी सत्ता बचाने के लिए उसने शताव्दियों से पहाड़ियो का तुष्टीकरण किया है। मधेशी अभी तक राजा को अपना मानते थे-पहाड़ी इसलिए शान्त थे क्योंकि सत्ता में उनका सीधा दखल था। आश्चर्य की बात तो यह है कि धुर कम्युनिस्ट माओवादियों के दल में भी मधेशी बहुत कम हैं। नेपाल के सभी दलों में पहाड़ियों का दबदबा है। तो ऐसे में चुनाव होता भी है तो मधेशियों के साथ कितना न्याय हो पाएगा? क्या उन्हे युगों तक फिर अपने अधिकारों के संघर्ष नहीं करना पड़ेगा?यहीं वह बिन्दु है जहां राजा अपने को फिर से मजबूत पाता है और उसने अपने पत्ते चल भी दिए हैं। तराई में मधेशियों का अांदोलन शुरु हो गया हैं। नेपाली कांग्रेस, नेपाली सेना, भारत और अमरीका पहले से ही राजा के समर्थक हैं-कम से कम सांविधानिक राजतंत्र तक तो जरुर ही।अगर मधेशी आंदोलन जोर पकड़ता है जिसकी संभावना ज्यादा है( उनकी संख्या को देखते हुए) तो ये माओवादियों के लिए बहुत बड़ा धक्का होगा और शोषितों व दलितों के बीच बहुत मेहनत से बनाया गया उनका आधार दो फाड़ हो जाएगा। दरअसल तब राजा नाम की संस्था ही वो विकल्प रह जाएगी जिस पर पहाड़ी और मधेशी दोनों ही भरोसा कर सकते हैं। और यहीं नेपाल नरेश की दिली इच्छा है और भारत -अमरीका की भी। भारत के हित में चीन को नेपाल की राजनीति से बाहर रखने का अभी यहीं एकमात्र उपाय है जिसपर अमल होना चाहिए, हलांकि भारत काफी देर से जागा है। चीन की विराट सैन्य और आर्थिक ताकत नेपाल में इतनी जल्दी शांति होने देगी, मानना मुश्किल है। लेकिन भारत अगर अभी भी नेपाल नरेश को काबू में रखकर दृढ़ता और इमानदारी से नेपाल में लोकतंत्र बहाल करवाए- तो बाजीं अभी भी अपने हाथ में है।

नजर दिल्ली पर .....

वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री बनीं मायावती की नज़रें अब दिल्ली की सत्ता पर टिकी हैं. पिछले कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के चौराहों पर इश्तहारों के बड़े-बड़े बोर्ड नज़र आने लगे हैं. इन इश्तहारों में मायावती का हँसता हुआ चेहरा दिखाई पड़ता है. बोर्ड पर लिखा है - "हमारी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सरकार अन्य पार्टी की सरकारों से अलग है. जहाँ अन्य पार्टियाँ सिर्फ़ वादे करती हैं, हम जो कहते हैं उन पर अमल भी करते हैं." इन इश्तहारों में सरकार की पिछले छह महीनों की उपलब्धियों के ब्यौरे भी दर्ज हैं. मायावती तीन बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं लेकिन पूर्ण बहुमत के अभाव में उनकी सरकार कभी भी पाँच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई. मायावती के ज्यादातर समर्थक गाँवों के ग़रीब लोग हैं जो मीडिया से प्रभावित नहीं होते. इन आलोचनाओं से बेख़बर मायावती इनके लिए लोकप्रिय नेता है. लखनऊ में जो इश्तहार लगे हैं उसे कार से चलने वाले लोग भले ना पढ़ें लेकिन साइकिल सवार या पैदल चलने वाली जनता की निगाहें इन पर ज़रूर जाएगी.

यूपी में दलितों की हत्या पर राजनीति -

इटावा समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह का गृह जनपद है लेकिन उनकी पार्टी का भी कोई नेता सांत्वना देने नहीं पहुँचा था. लेकिन राहुल का दौरा घोषित होते ही सपा महासचिव रामगोपाल यादव तत्काल मायावती के बाद वहाँ पहुँच गए. दरअसल मायावती पिछले कुछ महीनों में रैलियाँ और सभाएँ करके कांग्रेस पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाती रही हैं. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पिछले विधानसभा चुनावों में ख़राब स्थिति की वजह दलित वोट बैंक का मायावती के साथ जाना माना जाता है.