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Friday, June 13, 2008

नई सोच की पत्रकारिता ........

समाज बदला विचारधारा बदली पहनावा बदला तो क्यो पत्रकारिता न बदले ?????
पहले पत्रकारिता समाज का आइना होती थी , आज भी है लेकिन नजरिया बदला है आयाम बदले है क्यो ? इसका कारण है टी आर पी को बढाकर पैसा बनाना । नई पीढ़ी के पत्रकार आज दबाव मे है वो ख़बर के बजाय कुत्ते - बिल्ली भूतप्रेत की खबरों को ज्यादा तवज्जो देने लगे है । असली ख़बर देने वाले खबरची नौकरी बचने की जुगत मे है शायद लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ लाचार हो गया है । लोग यही सब देख रहे है तो टीवी वाले ये सब दिखा रहे है क्यो न दिखाए टी आर पी का जो मामला है , ताजा उदाहरण है आरुशी का मामला जिसको जो मन मे आ रहा है वो दिखा रहा है तह तक जाने की कोशिश कोई नही कर रहा है आखिर पुलिस नाकाम हो गई है तो ये क्यो काम करे ।

Wednesday, June 11, 2008

तेल पर सरकार की राजनीती ........

पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में इजाफा करके केंद्र की मौजूदा संप्रग सरकार ने अपने ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी है। यह सरकार की अकर्मण्यता का घोतक है और इसके जरिए पहले ही महंगाई से त्रस्त देश की जनता को आर्थिक आतंक में झोंकने का काम किया गया है। देश की जनता को राहत देने में यूपीए सरकार सभी मोर्चे पर विफल रही है। प्रधानमंत्री द्वारा अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की बढ़ती कीमतों का हवाला देकर पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य में वृद्धि को मजबूरी बताना यह साबित करता है कि सरकार का देश की आर्थिक प्रगति का दावा कितना खोखला है। यह निर्णय महंगाई से कराह रहे आम आदमी पर और बोझ लादने जैसा है। मेरे हिसाब से अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें कितनी ही बढ़ गई हों लेकिन हालात इतने खराब अभी भी नहीं हुए हैं कि उन्हें ‘बेकाबू’ कहा जा सके। तेल की कीमतों पर नियंत्रण रखने के लिए सरकार स्वयं अपना मुनाफा कम करके जनता को राहत दे सकती है।सरकार पेट्रोल व डीजल पर लगी ड्यूटियों व करों को घटाकर जनता को राहत देने का कार्य करे। सरकार कस्टम ड्यूटी, एक्साइज ड्यूटी तथा राज्य करों को कम करके अपना मुनाफा कम करे और आम जनता को राहत दे। मसलन अगर पेट्रोल 50 रूपये प्रति लीटर बिकता है तो इसका 25 रूपये सार्वजनिक वितरण वाली कंपनियों के और 25 रूपये सरकार के खाते में जाता है। सरकार को अपने इसी मुनाफे को कम करना होगा जिससे इंडियन ऑयल, हिंदुस्तान पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड तथा भारत पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड जैसी भारत की सार्वजनिक तेल कंपनियों का घाटा भी कम होगा। बड़ी अजीब बात है कि स्वयं केंद्र सरकार एकदम से रसोई गैस पर 50 रूपये, पेट्रोल पर 5 रूपये तथा डीजल पर 3 रूपये की वृद्धि कर देती है और राज्य सरकारों से करों को कम कर इसका भार वहन करने की बात कहती है। वह स्वयं इसके लिए कोशिश क्यों नहीं करती है? वहीं दूसरी आ॓र बार–बार तेल कंपनियों के घाटे की बात कहना किसी भी रूप में तर्कसंगत नहीं है क्योंकि ये सार्वजनिक तेल वितरण कंपनियां जिस कदर घाटा दिखा रही हैं, हकीकत में उतना घाटा उनको नहीं हो रहा है। फिलहाल इनको 1 लाख करोड़ रूपये का घाटा होने की बात कही जा रही है लेकिन सच्चाई का पता इनकी बैलेंसशीट देखकर ही लगाया जा सकता है। पेट्रोल, डीजल, केरोसीन तथा एलपीजी जैसे इनके ऐसे उत्पाद हैं जिनमें इनको घाटा सहना पड़ता है मगर इनके पास आय के अन्य स्रोत भी हैं। उड्डयन में इस्तेमाल होने वाला ईंधन (एविएशन फ्यूल), लुब्रिकैंट्स, तथा पेट्रोलियम वेस्ट जैसे इनके दसों बाई–प्रोडक्ट्स हैं जिनसे इन कंपनियों को भारी मुनाफा होता है। इनसे होने वाले मुनाफे का जिक्र तो इतने जोर-शोर से नहीं किया जाता है।प्रधानमंत्री द्वारा ‘कुछ नहीं हो सकता’ की बात कहकर हाथ खड़े कर देना, यह दर्शाता है कि संप्रग सरकार ने गत चार वर्षों से विकास दर में वृद्धि की आ॓ट लेकर जो प्रचार किया, उसने दरअसल देश की अर्थव्यवस्था को चौपट करके रख दिया है। तेल मूल्य दाम में बढ़ोतरी का असर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजमर्रा में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं पर पड़ता है। ऐसे में इस बात का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है कि सरकार का चंद दिनों में महंगाई पर काबू पा लेने का दावा कितना सच्चा है?

Friday, June 6, 2008

पानी के संकट से जूझता झांसी का रानीपुर .....


वैसे तो बुंदेलखंड का इलाका पानी के संकट से और सरकार की उपेक्षा से लगातार जूझ रहा है । लेकिन इस इलाके मे झाँसी जिले के रानीपुर कस्बे मे तो स्थिति कुछ ज्यादा ही बदतर है , झांसी जिले में 30,000 की आबादी के छोटे शहर रानीपुर की जिंदगी पानी के इंतजार पर टिकी हुई है। यहाँ जब सरकारी टैंकर आता है तो पानी लेने के आपाधापी मे सिर फुटव्वल की नौबत आ ही जाती है और ये रोज की घटना बच्चे तो रोज ही चोटिल हो जाते है । यहाँ तो शौचालय घर में होने पर भी पानी के अभाव में अधिकांश परिवार उनका उपयोग नहीं कर पाते हैं और दूर खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। 9 से 15 साल के छात्र जिनके पढ़ने लिखने की उम्र है वो पानी के लिए साइकल पर चार से छह बर्तन लादकर डेढ़-दो किलोमीटर दूर से पानी लाते हैं। केन्द्र सरकार की सर्व शिक्षा अभियान योजना इन बच्चो के लिए उतना मायने नही रखती जितना की घर मे पानी ले आना । यहाँ पर 91 लाख रुपये की एक योजना बनाई गई थी पर भ्रष्टाचार के कारण वह सफल नहीं हुई। आज भी उचित प्रयास हो तो इसे सुधारा जा सकता है। जल वितरण की व्यवस्था को भी सुधारना जरूरी है। आज की व्यवस्था विषमतापूर्ण है जिसमें कुछ असरदार लोग अधिक पानी अवैध ढंग से ले जाते हैं। दूसरी ओर अनेक परिवार इससे पूरी तरह वंचित हैं। खास कर बुंदेलखंड का इलाका जहाँ योजनाओं को तो कागजो मे लागू किया गया है आख़िर कब इनको कार्य रूप मे परिणित किया जाएगा ? जब और स्थिति और विकत हो जायेगी ।