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Saturday, October 25, 2008

पलायन करते पुरबिया .....

आखिरकार क्यों पुरबिया लोग पलायन करते है ......कारण अशिक्षा , बेरोजगारी , गरीबी और बढ़ते अपराध है । इनके पीछे क्या कोई यह जनता है की कारण कौन है ????? जवाब आता है वही राजनीती की अड़ंगेबाजी। बिहार में कभी लालू की कभी नीतिश की ..... उत्तर प्रदेश में माया मुलायम भी कम नही है । कहने को तो इन प्रदेशो में खनिज संसाधनों की कमी नही है लेकिन रोजगार के तो जैसे लाले पड़ गए है
उद्योग धंधो की कमी के चलते ये यू पी और बिहार के लोग महानगरो की ओर रुख करते है और वहां जगह भी बना लेते है । इसमे कोई संदेह नही है कि ये पुरबिया मेहनती और इमानदार है। लेकिन ये कम अपने यहाँ भी किया जा सकता है । इसके लिए जरुरत है सरकार क खिलाफ एक आन्दोलन कि एक क्रांति कि ।
क्यो ये पुरबिया मजबूर है पलायन
के लिए ?
अब जवाब ये निकल के आता है यहाँ कि सरकार जो विगत पच्चीस सालो से यहाँ राज कर रही है । क्यों महाराष्ट्र और अन्य महानगरो में उत्तर प्रदेश और बिहार कि अपेक्षा रोजगार अधिक है । देश के संसद में सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व ये पुरबिया ही करते है तो अपने प्रदेश में विकाश के नाम पे इनकी संख्या कम क्यो हो जाती है ?
हमारा ये मानना है की राज ठाकरे को दोष देने के बजाय ये पुरबिया अपने नेता लालू , नीतिश , मायावती , और मुलायम को दोष दे तो ज्यादा ठीक होगा । ये वो नेता है जिनके कारण ये पुरबिया पलायनवादी रुख अख्तियार करते है ।
कहते है राजनीती में सब जायज है तो राज ठाकरे की राजनीती भी एक तरीके से जायज है । जब ये उत्तर प्रदेश और बिहार के नेता अप्रत्य्क्ष्य रूप से प्रदेश को खोखला कर रहे है तो राज ठाकरे प्रत्यक्ष्य रूप से अपने वोट बैंक को मजबूत कर रहे है ।
देखना यह है की ये वोट की राजनीती कब तक चलती रहेगी ? कब तक हम मासूम जनता इन राजनीती के ठेकेदारों की बलि चढ़ते रहेंगे? ? ?


Wednesday, October 15, 2008

माया सोनिया के बीच जंग में .....

माया सरकार के बारे में कहा जाता है कि ...माया अपने शासन काल में दोस्तों पे ज्यादा ही ध्यान रखती है और दुश्मनों पे पैनी नजर रखती है अभी ताजा - ताजा विवाद उभर के सामने आया है वो रायबरेली का है जहाँ पर सोनिया सरकार कि एक महत्वाकान्छी योजना रेल कोच फैक्ट्री शुरू होने वाली थी १४ अक्तूबर को सोनिया शिलान्यास भी करने वाली थी बाकिर माया को ये सब मंजूर नही था
बात कुछ भी हो लेकिन इस माया - सोनिया के बीच विवाद में पिस रहे है आम लोगो के सपने वो सब्जबाग सोनिया ने दिखाए थे चूर चूर हो गए ग्रामीणों कि उम्मीदे कि ये थी कि फैक्ट्री लगेगी रोजगार मिलेगा , उन्हें क्या पता था कि राजनीती के आगे ये सब नही चलता
रेल कोच फैक्ट्री के बंद होने से वह के लोगो में काफी आक्रोश है , खून खराबे किसी भी स्थिति बन गई थी, शायद रायबरेली दूसरा सिंगुर भी बन जाता हाँ एक बात और कुछ भी घटना होती है तो आरोप प्रत्यारोप का दौर जरुर चलता है माया का कहना है किसी अगर सोनिया को उत्तर प्रदेश में विकास करना है तो तमाम जगह है जहा वो विकास कर सकती है रायबरेली के पीछे क्यो पड़ी है
इसका सबसे ज्यादा प्रभाव गरीब आदमी पे ही पड़ता है फिलहाल गलती किसी कि भी हो चोट तो आम आदमी को ही लगती है पेट तो आम आदमी का ही जलता है भाई

Tuesday, September 23, 2008

क्या मै महफूज हूँ ?????...

बम ब्लास्ट की ख़बर को तवज्जो देना हम पत्रकारों का फर्ज होता है .....लेकिन जब आम आदमी की सोचते है तो लगता है की अभी बहुत कुछ बाकी है..कही कोशी तो कही सिंगुर या कुछ और ??? .....पहले तो नही लेकिन अब जब भी घर से निकालता हूँ ...तो मन में एक अनजाना सा डर बना रहता है की कही ब्लास्ट न हो जाए ...बस में मेट्रो में या फ़िर कही भी हर उस शक्श को संदेह की नजरो से देखता हूँ जिसके हाथ में कोई बैग होता है ...... लगातार हो रही आतंकवादी गतिविधियों से हर आदमी अपने आप को डरा हुआ महसूस कर रहा है ..लेकिन लोगो कि दिनचर्या वैसे ही चल रही है जैसे पहले चल रही थी ...क्योंकि हम भारतीय है ,,,हमें कोई डिगा नही सकता ........लेकिन आम आदमी के लिए बदला है तो मन में एक डर .....
दोस्तों मै जिंदगी में कभी भी किसी से नही डरा हूँ ..... लेकिन किसी ब्लास्ट का शिकार हो के बे मौत नही मरना चाहता हूँ .... भगवान से यही दुआ है कि अगर कभी जान जाए तो देश की सेवा करते हुए जाए बस........
क्या खुफिया एजंसी इतनी निकम्मी हो गई है कि आम आदमी घर से निकलने के बाद वापस घर पहुच पाए ??????क्या ये मुमकिन है ????

Saturday, September 20, 2008

जांबाजी कही बिकती नही .......

जोश, जज्बा और देशभक्ति कही से खरीदी नही जाती .....ये पैदा होती है अपने देश की मिटटी के जुडाव से .....ये पैदा होतो है अपने परिवार के संस्कारो से ......
दिल्ली पुलिस के जांबाज पुलिस इंस्पेक्टर शहीद मोहन चंद शर्मा को शत - शत नमन....
जनवरी २००८ को राष्ट्रपति द्वारा मैडल लेते समय देखने वालो में कोई यह नही सोचा होगा की यह उनके लिए आखिरी मैडल होगा ....लेकिन आज यह सही है .....
कारगिल हो या फ़िर कोई और जंग या कोई पुलिसिया मुठभेड़ हर जगह ये आतंकवादी या क्रिमिनल मरते है तो अखबार , न्यूज़ चैनल अपनी भड़ास निकालने पहुच जाते है ...स्टोरी बानाने का सिलसिला चल पड़ता है .....लोग भीड़ बढाते है नारे बाजी करते है ..स्थानीय भी राजनीतिक रोटी सेकने पहुच जाते है .....
आज एक पुलिस का जवान शहीद हुआ है ....खबरों में इनकी शहादत को तव्वजो दी गई है लेकिन शायद इससे ज्यादा तव्वजो दी गई है उस ख़बर को जो मुठभेड़ से जुदा था ...हर पत्रकार बंधू अपने अखबार या चैनल के लिए सबसे पहले ब्रेकिंग करना चाहता था ....शायद नौकरी के लिए यह जरुरी भी था........
निवेदन है इन पत्रकार भाइयो से की इस जांबाज इंस्पेक्टर के परिवार की स्थिति के बारे में भी कुछ दिखाए ....

Friday, September 19, 2008

आतंकवाद में समाज की भूमिका ......

ब्लास्ट होता है लोग मरते है फ़िर स्थिति सामान्य होती है ...समय के साथ लोगो की दिनचर्या भी सामान्य हो जाती है......कुछ लोगो को पुरस्कार मिलता है तो कुछ लोगो को मुवावजा ...क्या इसके पीछे कोई यह सोचता है कि उन लोगो का क्या होता है जो इसके शिकार होते है ......क्या इन सब के बाद सुरक्षा व्यवस्था सुधर जाती है ? नही वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति चलती है .....आख़िर पुलिस क्या - क्या करे किस -किस को खंगाले .....जब भी कोई इनकाउंटर होता है तो कुछ समाज के ठेकेदार या फ़िर कहा जाय कि ये सामाजिक लोग ये जरुर कहते फिरेंगे कि ये इनकाउंटर पूर्व नियोजित था .....या कुछ मानवाधिकारी बंधू कूद के आ जायेंगे कहेंगे कि यह मानवाधिकार के खिलाफ है .......आख़िर में हम ये सवाल करते है कि ये सामाजिक लोग और मानवाधिकारी लोग उस समय कहा जाते है जब ब्लास्ट होता है ? पुलिस तो जो भी कर रही है कही न कही से जनता कि और देश की भलाई ही कर रही है .....अभी हाल में एक फ़िल्म आई थी वेडनेसडे जिसमे नसरुद्दीन शाह ने एक आम आदमी कि भूमिका निभाई थी ....वो आम आदमी मुंबई ब्लास्ट से परेशान था .....उसने आतंकवादियों के खिलाफ वो कदम उठाया जो आतंकवादी देश के खिलाफ उठाते है .....अगर आज देश का हर आम आदमी इस फ़िल्म के हीरो कि भूमिका निभाने लगे तो ......देश कि सुरक्षा एजंसियों का क्या होगा ?

Tuesday, August 26, 2008

आफिस में लेट .........

सुबह ७ बजे का अलार्म घनघनाया और मन भन्ना गया ....आज किसी तरह आफिस जल्दी पहुचना था.... इसलिए कोसा बहुत अपने आप को लेकिन उठना था क्योकि जीवन के जद्दोजहद से जूझना था .....फ़िर क्या था ....गिरते पड़ते पंहुचा आफिस के गेट पर मोबाईल में देखा कि नौ बज के पच्चीस मिनट हो गए बस कर दिया हस्ताक्षर .....शुरू हो गई नौकरी .......स्टोरी आईडिया और खबरों का दौर.....इसी बीच कुछ मित्रो को हो गई देर कर दिए लेट और हो गए रजिस्टर में अनुपस्थित .....कट गई तनख्वाह .....मरते क्या न करते वाली हाल ने उन्हें अन्दर से झकझोर दिया ....बेचारे कुछ देर तो बिताये आफिस में ...लेकिन दे गया धैर्य जबाब वो भी कोसे किस्मत को ......और निकल पड़े घर की ओर .....सिलसिला निरंतर जारी रहेगा .......दोस्त अभी तो स्टोरी बाकी है.....ये कहानी किसी भी आफिस की हो सकती है इसलिए सावधान .................ध्यान दीजिये समय की पाबन्दी को ....

Friday, June 13, 2008

नई सोच की पत्रकारिता ........

समाज बदला विचारधारा बदली पहनावा बदला तो क्यो पत्रकारिता न बदले ?????
पहले पत्रकारिता समाज का आइना होती थी , आज भी है लेकिन नजरिया बदला है आयाम बदले है क्यो ? इसका कारण है टी आर पी को बढाकर पैसा बनाना । नई पीढ़ी के पत्रकार आज दबाव मे है वो ख़बर के बजाय कुत्ते - बिल्ली भूतप्रेत की खबरों को ज्यादा तवज्जो देने लगे है । असली ख़बर देने वाले खबरची नौकरी बचने की जुगत मे है शायद लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ लाचार हो गया है । लोग यही सब देख रहे है तो टीवी वाले ये सब दिखा रहे है क्यो न दिखाए टी आर पी का जो मामला है , ताजा उदाहरण है आरुशी का मामला जिसको जो मन मे आ रहा है वो दिखा रहा है तह तक जाने की कोशिश कोई नही कर रहा है आखिर पुलिस नाकाम हो गई है तो ये क्यो काम करे ।

Wednesday, June 11, 2008

तेल पर सरकार की राजनीती ........

पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में इजाफा करके केंद्र की मौजूदा संप्रग सरकार ने अपने ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी है। यह सरकार की अकर्मण्यता का घोतक है और इसके जरिए पहले ही महंगाई से त्रस्त देश की जनता को आर्थिक आतंक में झोंकने का काम किया गया है। देश की जनता को राहत देने में यूपीए सरकार सभी मोर्चे पर विफल रही है। प्रधानमंत्री द्वारा अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की बढ़ती कीमतों का हवाला देकर पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य में वृद्धि को मजबूरी बताना यह साबित करता है कि सरकार का देश की आर्थिक प्रगति का दावा कितना खोखला है। यह निर्णय महंगाई से कराह रहे आम आदमी पर और बोझ लादने जैसा है। मेरे हिसाब से अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें कितनी ही बढ़ गई हों लेकिन हालात इतने खराब अभी भी नहीं हुए हैं कि उन्हें ‘बेकाबू’ कहा जा सके। तेल की कीमतों पर नियंत्रण रखने के लिए सरकार स्वयं अपना मुनाफा कम करके जनता को राहत दे सकती है।सरकार पेट्रोल व डीजल पर लगी ड्यूटियों व करों को घटाकर जनता को राहत देने का कार्य करे। सरकार कस्टम ड्यूटी, एक्साइज ड्यूटी तथा राज्य करों को कम करके अपना मुनाफा कम करे और आम जनता को राहत दे। मसलन अगर पेट्रोल 50 रूपये प्रति लीटर बिकता है तो इसका 25 रूपये सार्वजनिक वितरण वाली कंपनियों के और 25 रूपये सरकार के खाते में जाता है। सरकार को अपने इसी मुनाफे को कम करना होगा जिससे इंडियन ऑयल, हिंदुस्तान पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड तथा भारत पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड जैसी भारत की सार्वजनिक तेल कंपनियों का घाटा भी कम होगा। बड़ी अजीब बात है कि स्वयं केंद्र सरकार एकदम से रसोई गैस पर 50 रूपये, पेट्रोल पर 5 रूपये तथा डीजल पर 3 रूपये की वृद्धि कर देती है और राज्य सरकारों से करों को कम कर इसका भार वहन करने की बात कहती है। वह स्वयं इसके लिए कोशिश क्यों नहीं करती है? वहीं दूसरी आ॓र बार–बार तेल कंपनियों के घाटे की बात कहना किसी भी रूप में तर्कसंगत नहीं है क्योंकि ये सार्वजनिक तेल वितरण कंपनियां जिस कदर घाटा दिखा रही हैं, हकीकत में उतना घाटा उनको नहीं हो रहा है। फिलहाल इनको 1 लाख करोड़ रूपये का घाटा होने की बात कही जा रही है लेकिन सच्चाई का पता इनकी बैलेंसशीट देखकर ही लगाया जा सकता है। पेट्रोल, डीजल, केरोसीन तथा एलपीजी जैसे इनके ऐसे उत्पाद हैं जिनमें इनको घाटा सहना पड़ता है मगर इनके पास आय के अन्य स्रोत भी हैं। उड्डयन में इस्तेमाल होने वाला ईंधन (एविएशन फ्यूल), लुब्रिकैंट्स, तथा पेट्रोलियम वेस्ट जैसे इनके दसों बाई–प्रोडक्ट्स हैं जिनसे इन कंपनियों को भारी मुनाफा होता है। इनसे होने वाले मुनाफे का जिक्र तो इतने जोर-शोर से नहीं किया जाता है।प्रधानमंत्री द्वारा ‘कुछ नहीं हो सकता’ की बात कहकर हाथ खड़े कर देना, यह दर्शाता है कि संप्रग सरकार ने गत चार वर्षों से विकास दर में वृद्धि की आ॓ट लेकर जो प्रचार किया, उसने दरअसल देश की अर्थव्यवस्था को चौपट करके रख दिया है। तेल मूल्य दाम में बढ़ोतरी का असर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजमर्रा में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं पर पड़ता है। ऐसे में इस बात का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है कि सरकार का चंद दिनों में महंगाई पर काबू पा लेने का दावा कितना सच्चा है?

Friday, June 6, 2008

पानी के संकट से जूझता झांसी का रानीपुर .....


वैसे तो बुंदेलखंड का इलाका पानी के संकट से और सरकार की उपेक्षा से लगातार जूझ रहा है । लेकिन इस इलाके मे झाँसी जिले के रानीपुर कस्बे मे तो स्थिति कुछ ज्यादा ही बदतर है , झांसी जिले में 30,000 की आबादी के छोटे शहर रानीपुर की जिंदगी पानी के इंतजार पर टिकी हुई है। यहाँ जब सरकारी टैंकर आता है तो पानी लेने के आपाधापी मे सिर फुटव्वल की नौबत आ ही जाती है और ये रोज की घटना बच्चे तो रोज ही चोटिल हो जाते है । यहाँ तो शौचालय घर में होने पर भी पानी के अभाव में अधिकांश परिवार उनका उपयोग नहीं कर पाते हैं और दूर खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। 9 से 15 साल के छात्र जिनके पढ़ने लिखने की उम्र है वो पानी के लिए साइकल पर चार से छह बर्तन लादकर डेढ़-दो किलोमीटर दूर से पानी लाते हैं। केन्द्र सरकार की सर्व शिक्षा अभियान योजना इन बच्चो के लिए उतना मायने नही रखती जितना की घर मे पानी ले आना । यहाँ पर 91 लाख रुपये की एक योजना बनाई गई थी पर भ्रष्टाचार के कारण वह सफल नहीं हुई। आज भी उचित प्रयास हो तो इसे सुधारा जा सकता है। जल वितरण की व्यवस्था को भी सुधारना जरूरी है। आज की व्यवस्था विषमतापूर्ण है जिसमें कुछ असरदार लोग अधिक पानी अवैध ढंग से ले जाते हैं। दूसरी ओर अनेक परिवार इससे पूरी तरह वंचित हैं। खास कर बुंदेलखंड का इलाका जहाँ योजनाओं को तो कागजो मे लागू किया गया है आख़िर कब इनको कार्य रूप मे परिणित किया जाएगा ? जब और स्थिति और विकत हो जायेगी ।

Thursday, May 15, 2008

हिन्दू राष्ट्र की मानसिकता......

ताज महल, प्रेम का अद्भुत स्तंभसारी दुनिया यही जानती और मानती है,लेकिन यह केवल प्यार का स्तंभ नहीं है,यह गवाह है असुरक्छा का,यह गवाह है एक मुसलमान के प्रेम का,जिसने भारत में प्रेम किया,यहाँ प्रेम वर्जना की वस्तु है,शायद इसीलिए शाहजहाँ ने,अपने प्रेम को दीर्घकालिक बनाने के लिए ताज का निर्माण कराया,अजीब बात है मैं यह सब क्यों कह रहा हू,जबकि सारी दुनिया जानती है.लेकिन दुर्भाग्य इस प्रेम के प्रतीक का,कोई प्रेमी नहीं खाता कसम ताज कीक्यों खाते है प्रेमी कसमे लैला और मजनू कीहीर और रांझा की ?यह महज विडम्बना नहीं है,यह है एक राष्ट्र की मानसिकता,हिन्दू राष्ट्र की मानसिकता,पुरुष प्रधानता की मानसिकता,अकबर महान ने प्रेम किया जोधा बाई से,लेकिन नहीं बनवाया कोई ताज महल,शुरू किया दीने इलाही,जहाँ पर लोग स्वतंत्र हो अपनी स्वतंत्रता व पसंद के साथ,क्यों रह गयी यह कहानी अधूरी?क्यों आज भी प्रेम वर्जना की वस्तु है,एक सेकुलर स्टेट में?

महफूज नही है महिलाएं दिल्ली में


हमारे पुराणों धार्मिक ग्रंथो मी यू तो महिलाओ की स्थिति देवी के समान दर्शया गया है , लेकिन हमेशा से ही उनको अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता रहा है , चाहे वो सीता के रूप मे हो या फ़िर आज की गुडिया ...
दिल्ली मे महिलाओ की स्थिति की चर्चा करे तो राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली जैसे आधुनिक शहर मे महिलाओ के खिलाप अपराध मे सबसे ज्यादा बढोत्तरी हुई है । कभी तंत्र - मंत्र के नाम पर की हत्या कर दी जाती है तो कही पड़ोसी द्वारा बलात्कार यह पीडा किसी भी रूप मे हो सकती है ।
दिल्ली मे अभी हाल ही मे एक सर्वे के अनुसार बलात्कार के ५३३ मामले और छेड़ छाड़ के ६२९ मामले दर्ज किए गए है । यह आकडे एनी बड़े शहरो की तुलना मे काफी अधिक है । ऐसे मामलो मे निरंतर ब्रिधि का सबसे बड़ा कारण है दोषी के ऊपर न्यायालय द्वारा दोष सिद्ध न होना ।
यू तो हर तरह के अपराध से निपटने के लिय कानून है पर यह सब अपराध के आगे फिसड्डी नजर आते है , राष्ट्रीय महिला आयोग की माने तो बलात्कार छेड़ छाड़ एवं अगवा जैसे मामलो मे आरोप सिद्ध न होना एक चिंता का विषय है । देश भर मे २००६-०७ मे ३७ हजार मामले सामने आए है जिनमे दोष सिद्धि का प्रतिशत ३० से भी कम था , और एक बात बलात्कार के मामले मे तो यह आकडा २७ % से अधिक नही बढ़ पाया ।
समाज मे बलात्कार पिडिता एक दर्द लिए हर दिन मरती रहती है , ऐसे मे इन पिदितो के लिए कुछ प्रावधान होने चाहिए ताकि वे समाज की मुख्यधारा से जुड़ सके । ज्यादातर मामलो मे पिडिता बदनामी के डर से पुलिस मे मामला दर्ज ही नही कराती है ।

इतिहास के दोराहे पर नेपाल.........

नेपाल की समस्या अभी तक सुलझ नहीं सकी है और शांति के राह में बाधाएं खत्म नहीं हुई है। माओवादियों द्वारा युद्ध विराम की घोषणा और चुनाव में भाग लेने का फैसला ही सिर्फ शांति का गारंटीकार्ड नहीं है। आज नेपाल, इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां से एक तरफ स्थिरता और विकास के तमाम रास्ते खुलते हैं तो दूसरी तरफ बर्बादी का अथाह समंदर है। दरअसल नेपाल, भारत और चीन की क्षेत्रीय महात्वाकांक्षाओँ का शिकार हो गया है। लेकिन ये इसकी असली बीमारी नहीं है। नेपाल जैसे देशों की कोई भी समस्या भारत से ही शुरु होती है और भारत में ही जाकर खत्म भी होती है।नेपाल के इतिहास की थोड़ी सी पड़ताल करें तो असली समस्या तब शुरु हुई जब भारत की आजादी के कुछ ही समय बाद नेपाल में वर्तमान शाह राजवंश को भारत सरकार की मदद से पुनर्स्थापित किया गया-इससे पहले लगभग सौ सालों तक वास्तविक सत्ता राणा परिवार ने हथिया रखी थी। 1844 में महल हत्याकांड के बाद राणा जंगबहादुर ने सत्ता अपने हाथों में ले ली थीं और सन सत्तावन के भारतीय विद्रोह के समय अंग्रेजों के सबसे काबिल चमचों में उसका नाम सिंधिया और सिख रजवारों के साथ आता है। लेकिन भारत की आजादी के बाद भारत ने अपने देश में तो लोकतंत्र को बढ़ावा दिया, लेकिन नेपाल की ओर से आंखे मूंद ली। नेपाल में निरंकुश राजतंत्र को फलने-फूलने का भरपूर मौका दिया गया-एक ऐसे देश द्वारा जो खुद को लोकतंत्र का अगुआ मानता था। गौर कीजिए- भारत ने दक्षिण अफ्रिका और म्यांमार को लंवे अर्से तक इसी बिना पर वहिष्कृत किए रखा, लेकिन पड़ोस की घटनाएं भारत के लिए क्षम्य बन गई। और इस शुतुरमुर्गी रबैये का खमियाजा भारत को भुगतना ही था। दरअसल भारत ने अपनी विग व्रदर बाली भूमिका का निर्वाह करते हुए नेपाल की छोटी-मोटी जरुरतों का तो ख्याल रखा, लेकिन अपनी सुरक्षा के नाम पर कई एकतरफा संधि भी किए जिसका नेपाल की जनता के एक छोटे से लेकिन प्रभावशाली तबके ने सदा विरोध किया। नेपाल में एक परजीवी एलीट का विकास होता रहा जिसकी फैंटेसी भारत के बड़े शहरों में बसने की होती थी और जिनके बच्चे आईआईटी में पढ़ने का ख्वाब देखते थे। और राजा इस तबके का नेता हुआ करता था। जनता को इस दर्जे तक अशिक्षित और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से दूर रखा गया था कि राजा ही बिष्णु अबतार था शायद बिष्णु का ग्यारहवां अबतार। भारत का सत्ताधारी वर्ग सोंचता था कि एक कमजोर नेपाल और उसका कमजोर नेतृत्व बड़ी आसानी से काबू में रह सकता है। किसी लोकतांत्रिक नेता से बात करने की तुलना में तानाशाह या राजा टाइप के नेता से बात मनबाना बड़ी ताकतों के लिए हमेशा से आसान रहा है। लेकिन एक ऐसे देश में, जो दुरुह घाटियों से भरा पड़ा हो और जिसके दोनों तरफ दो विशाल विकासशील और गतिशील देश हों, यह लगभग असंभव ही है कि ज्यादा दिन तक उस देश में युग-सत्य न पहुंचे। कायदे से भारत को पचास के दशक से ही नेपाल में एक स्वस्थ और गतिशील लोकतंत्र के प्रयास करना चाहिए था और ऐसा न करके भारत ने राजनीति की लगभग सारी जमीन ही किसी बैकल्पिक ताकत के खाली छोड़ दी और माओवादियों ने इसे सिर्फ दस सालों में भर दिया। लेकिन सवाल सिर्फ राजशाही के खात्मे और बैकल्पिक शासन व्यवस्था की नहीं है- नेपाल में कई अन्य विवाद भी हैं। नेपाल की आवादी में भारत से गये लोगों या भारतवंशियों की संख्या उसकी कुल आवादी का लगभग 48 प्रतिशत है औप पहाड़ी लोगों की जनसंख्यया 52 फीसदी है। जबकि प्रशासन में मधेशी 10 फीसदी भी नहीं है। नेपाल का राज परिवार मधेशी मूल का है और अपनी सत्ता बचाने के लिए उसने शताव्दियों से पहाड़ियो का तुष्टीकरण किया है। मधेशी अभी तक राजा को अपना मानते थे-पहाड़ी इसलिए शान्त थे क्योंकि सत्ता में उनका सीधा दखल था। आश्चर्य की बात तो यह है कि धुर कम्युनिस्ट माओवादियों के दल में भी मधेशी बहुत कम हैं। नेपाल के सभी दलों में पहाड़ियों का दबदबा है। तो ऐसे में चुनाव होता भी है तो मधेशियों के साथ कितना न्याय हो पाएगा? क्या उन्हे युगों तक फिर अपने अधिकारों के संघर्ष नहीं करना पड़ेगा?यहीं वह बिन्दु है जहां राजा अपने को फिर से मजबूत पाता है और उसने अपने पत्ते चल भी दिए हैं। तराई में मधेशियों का अांदोलन शुरु हो गया हैं। नेपाली कांग्रेस, नेपाली सेना, भारत और अमरीका पहले से ही राजा के समर्थक हैं-कम से कम सांविधानिक राजतंत्र तक तो जरुर ही।अगर मधेशी आंदोलन जोर पकड़ता है जिसकी संभावना ज्यादा है( उनकी संख्या को देखते हुए) तो ये माओवादियों के लिए बहुत बड़ा धक्का होगा और शोषितों व दलितों के बीच बहुत मेहनत से बनाया गया उनका आधार दो फाड़ हो जाएगा। दरअसल तब राजा नाम की संस्था ही वो विकल्प रह जाएगी जिस पर पहाड़ी और मधेशी दोनों ही भरोसा कर सकते हैं। और यहीं नेपाल नरेश की दिली इच्छा है और भारत -अमरीका की भी। भारत के हित में चीन को नेपाल की राजनीति से बाहर रखने का अभी यहीं एकमात्र उपाय है जिसपर अमल होना चाहिए, हलांकि भारत काफी देर से जागा है। चीन की विराट सैन्य और आर्थिक ताकत नेपाल में इतनी जल्दी शांति होने देगी, मानना मुश्किल है। लेकिन भारत अगर अभी भी नेपाल नरेश को काबू में रखकर दृढ़ता और इमानदारी से नेपाल में लोकतंत्र बहाल करवाए- तो बाजीं अभी भी अपने हाथ में है।

नजर दिल्ली पर .....

वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री बनीं मायावती की नज़रें अब दिल्ली की सत्ता पर टिकी हैं. पिछले कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के चौराहों पर इश्तहारों के बड़े-बड़े बोर्ड नज़र आने लगे हैं. इन इश्तहारों में मायावती का हँसता हुआ चेहरा दिखाई पड़ता है. बोर्ड पर लिखा है - "हमारी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सरकार अन्य पार्टी की सरकारों से अलग है. जहाँ अन्य पार्टियाँ सिर्फ़ वादे करती हैं, हम जो कहते हैं उन पर अमल भी करते हैं." इन इश्तहारों में सरकार की पिछले छह महीनों की उपलब्धियों के ब्यौरे भी दर्ज हैं. मायावती तीन बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं लेकिन पूर्ण बहुमत के अभाव में उनकी सरकार कभी भी पाँच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई. मायावती के ज्यादातर समर्थक गाँवों के ग़रीब लोग हैं जो मीडिया से प्रभावित नहीं होते. इन आलोचनाओं से बेख़बर मायावती इनके लिए लोकप्रिय नेता है. लखनऊ में जो इश्तहार लगे हैं उसे कार से चलने वाले लोग भले ना पढ़ें लेकिन साइकिल सवार या पैदल चलने वाली जनता की निगाहें इन पर ज़रूर जाएगी.

यूपी में दलितों की हत्या पर राजनीति -

इटावा समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह का गृह जनपद है लेकिन उनकी पार्टी का भी कोई नेता सांत्वना देने नहीं पहुँचा था. लेकिन राहुल का दौरा घोषित होते ही सपा महासचिव रामगोपाल यादव तत्काल मायावती के बाद वहाँ पहुँच गए. दरअसल मायावती पिछले कुछ महीनों में रैलियाँ और सभाएँ करके कांग्रेस पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाती रही हैं. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पिछले विधानसभा चुनावों में ख़राब स्थिति की वजह दलित वोट बैंक का मायावती के साथ जाना माना जाता है.